जब भी हमारे देश का कोई प्रधानमंत्री चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे शत्रु देशों से वैश्विक कूटनीति के नाम पर प्रेम और भरोसे के पींगे बढ़ाना चाहता है, या फिर नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार या तिब्बतियों पर भारतीयों की गाढ़ी कमाई लुटाता है तो मेरे मन में एक ही सवाल पैदा होता है कि हमारे इन नेताओं को इतिहास का ज्ञान नहीं है, या फिर भौगोलिक सच्चाई से ये नादान हैं। क्या इन्हें उन वीर जवानों और साम्प्रदायिक दंगा, आतंकवाद, नक्सलवाद, संगठित अपराध की भेंट चढ़े आमलोगों व सुरक्षा कर्मियों के चेहरे याद नहीं आते, उनकी विधवाओं और बच्चों, वृद्ध माता पिता आदि की याद नहीं आती, जिनकी असमय मौत का एकमात्र कारण चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश या इनका रिंग मास्टर अमेरिका की विध्वंसक नीतियां रही हैं।
मसलन, यहां पर सवाल भूमि के किसी कब्जाए हुए टुकड़े या सांप्रदायिक मिजाज पर वर्चस्व की मानसिकता का नहीं है, बल्कि उन दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक-प्रशासनिक फैसलों से जुड़ा हुआ है जिसकी कीमत हमारे वीर जवानों और आम आदमियों को चुकानी पड़ती है। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कहा था कि हम इतिहास बदल सकते हैं, लेकिन भूगोल नहीं, के बारे में सिर्फ इतनी सी दलील देना चाहूंगा कि आप इतिहास और भूगोल को यथावत रहने दीजिए, बस अपने राजनीति विज्ञान के विषय वस्तु बदल दीजिए।
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आपको पता होना चाहिए कि राजनीति विज्ञान परिवर्तन शील होता है, इसलिए इसे हमारे वीर जवानों और आम आदमियों के अनुकूल बना दीजिए। आपको भी इस बात का आभास होगा कि हमारे दलित-पिछड़े लोग इन सूक्ष्म प्रशासनिक बारीकियों को नहीं समझ पाते हैं, इसलिए इस अहम बदलाव के लिए किसी जनादेश का इंतजार मत कीजिए, बल्कि अपनी अंतरआत्मा से फैसले लीजिए। यह बात मैं इसलिए उठा रहा हूँ कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए इस महीने के आखिर में चीन जा सकते हैं। यह सम्मेलन 31 अगस्त और 1 सितंबर को चीन के उत्तरी शहर तियानजिन में होना है।
सवाल है कि ऐसा अप्रत्याशित कदम वह तब उठा रहे हैं, जब अमेरिका-चीन प्रेरित हिन्दू विरोधी पाकिस्तानी आतंकवादी पहलगाम हमला और ऑपरेशन सिंदूर से मिले जख्मों को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जबकि साल 2020 में पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच झड़प के बाद यह मोदी की पहली चीन यात्रा होगी। वह इससे पहले 2018 में चीन गए थे।
सीधा सवाल है कि जब प्रधानमंत्री मोदी गलवान सैन्य झड़प से इतने व्यथित थे कि लगातार पांच सालों तक चीन नहीं गए तो अब फिर पहलगाम कांड के तुरंत बाद ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या आपकी अंतरात्मा अब मर चुकी है या फिर अप्रत्याशित अमेरिकी धोखे मिलने के बाद अगले चीनी धोखे खाने की बुनियाद रखने को लालायित मालूम पड़ते हैं! क्या आपको नहीं पता कि जवाहरलाल नेहरू और नरेंद्र मोदी की सद्भावना को मुंह को मुंह चिढ़ाने वाला चीन कभी भी भारत का सगा नहीं हो सकता।
सुलगता सवाल है कि वर्ष1962 से साल 2020 तक जब चीन की फितरत नहीं बदली तो आगे फिर किस नीतिगत करिश्मे की उम्मीद आपको है। क्या वह डोकलाम झड़प विस्मृत कर चुके हैं? क्या वह तवांग दंश भूल चुके हैं? क्या बोमडिला उन्हें याद नहीं? क्या आपकी इस यात्रा से लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक की उसकी क्षुद्र मानसिकता बदल जाएगी? क्या भारत को उसके ही पड़ोसियों द्वारा घेरने की उसकी फ़ितरत बदल जाएगी?
यहां पर मैं यह समझ सकता हूँ कि हमारे कतिपय असरदार पर गद्दार नेताओं-अधिकारियों-उद्योगपतियों की तिकड़ी ने क्षणिक लाभवश अदूरदर्शिता दिखाते हुए अमेरिकी दबाव में भारतीय अर्थव्यवस्था को चीनी अर्थव्यवस्था पर निर्भर बना दिया। लेकिन इसी दिक्कत को दूर करने के लिये ही तो यूपीए के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 10 वर्षों के बाद सत्ता से बाहर करते हुए एनडीए के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्रीय सत्ता सौंपी गई। आप पिछले 11 वर्षों से सत्ता में हैं, लेकिन यह समझने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं कि रूसी दबाव में चीनी मित्रता का प्रयास अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा मूर्खता भरा कदम साबित होगा। यह जान लीजिए कि इतिहास खुद को दोहराता है और आप इससे बच नहीं सकते।
मेरी स्पष्ट राय है कि अमेरिका से तल्खी के बीच चीन-ईरान से बढ़ रही नज़दीकी कदापि भारत के पक्ष में नहीं होगी। खबर है कि पीएम नरेन्द्र मोदी एससीओ लीडर्स समिट में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग से मुलाकात कर सकते हैं। वहीं इस दौरान वो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से भी द्विपक्षीय मुलाकात कर सकते है। वहीं, चीन यात्रा से एक दिन पहले पीएम का जापान जाने का भी कार्यक्रम है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इन दोनों ही यात्राओं को लेकर फिलहाल कोई औपचारिक बयान नहीं दिया है। लेकिन बीते कुछ वक्त से भारत और चीन के संबंध सामान्य होने की दिशा में है।
बीते महीने विदेश मंत्री एस जयशंकर चीन की यात्रा पर थे। उन्होंने राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ मुलाकात में इस बात का जिक्र किया था कि किस तरह से पीएम मोदी और चिनफिंग के निर्देशन से द्विपक्षीय संबंधों को सकारात्मक दिशा मिली है। उसी चीन यात्रा के लिए ग्राउंड वर्क तैयार रहा करने के लिहाज से अहम थी। इससे पहले जून महीने में ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और रक्षा मंत्री राजनाथ भी चीन का दौरा किया था।
सवाल है कि इतने तल्खी भरे रिश्ते के बावजूद भी दोनों देश कैसे करीब आए तो जवाब होगा कि पिछले वर्ष रूस में मोदी-जिनपिंग की हुई मुलाकात के बाद द्विपक्षीय रिश्तों की बर्फ़ ही नहीं पिघली, बल्कि पहलगाम आतंकी हमला और ऑपरेशन सिंदूर जैसा तात्कालिक जख्म भी मिला, जिससे अमेरिका-चीन दोनों बेनकाब हुए। इससे पहले बंगलादेश से भारत समर्थक शेख हसीना की सरकार का तख्ता पलट किया गया। भारत ने यहां भी आत्मघाती चुप्पी साधी, जिससे अमेरिका-चीन के हौसले बढ़े।
यह ठीक है कि गत 23 जुलाई को पांच साल के अंतराल के बाद भारत ने चीन के लिए टूरिस्ट वीजा की बहाली की। वहीं, इस साल की शुरुआत में कैलाश मानसरोवर पर सहमति बनने के बाद 26 अप्रैल को इसके शेड्यूल की घोषणा हुई। वहीं, अब सीधी फ्लाइट्स की बहाली को लेकर भी सकारात्मक चर्चा चल रही है।
इन परिस्थितियों में हमारी स्पष्ट सोच है कि अमेरिका, रूस, चीन को बातचीत के टेबल पर स्पष्ट कर दिया जाए कि आसेतु हिमालय के भारत के पड़ोसी देशों, अरब देशों, आशियान देशों में कोई भी भारत विरोधी कदम बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, क्योंकि भारत गुटनिरपेक्ष देश ही नहीं बल्कि ग्लोबल साउथ का अगुवा राष्ट्र भी है। यदि चीन सहमत हैं तो प्रेम के पींगे बढ़ाइए, अन्यथा फुलस्टॉप लगा दीजिए। ऐसा करना ही हमारे लिए आर्थिक और सैन्य दृष्टि से श्रेयस्कर होगा। इससे भारत-चीन की ब्रेक के बाद होने वाली लड़ाई भी थम जाएगी।
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)