Home / राजनीति / आरक्षण में क्रीमी लेयर पर राजनीतिक दलों की चुप्पी

आरक्षण में क्रीमी लेयर पर राजनीतिक दलों की चुप्पी


देश में आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है, जिसे हर राजनीतिक दल लपकने को तैयार रहता है। राजनीतिक दलों को लगता है कि बहुआयामी विकास के मुद्दे के बजाए आरक्षण की पैरवी करके सत्ता पाना ज्यादा आसान है। इसके लिए नेता किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं। यहां तक कि अदालतों के निर्णर्यों को भी चुनौती देने में पीछे नहीं रहते। नेताओं की दिलचस्पी आरक्षण को बढ़ाने में रहती है। आरक्षण की जरूरत है या नहीं, इस पर चर्चा तक करने से कतराते हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग की आय सीमा से संबंधित को संसदीय समिति की आठवीं रिपोर्ट में आय सीमा को बढ़ाने की सिफारिश की है।   
समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि आय सीमा को 6.5 लाख रुपये से बढ़ाकर 8 लाख रुपये प्रति वर्ष करने संबंधी संशोधन 2017 में किया गया था। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के नियमों के अनुसार, इस सीमा की समीक्षा हर तीन साल पर या जरूरत पडऩे पर उससे पहले भी की जानी चाहिए। भाजपा सांसद गणेश सिंह की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति ने कहा कि वर्तमान सीमा कम है, जिसके दायरे में ओबीसी का केवल एक छोटा सा हिस्सा आता है। उन्होंने कहा कि मुद्रास्फीति और निम्न आय वर्ग की बढ़ती आय के कारण इसमें वृद्धि करना समय की मांग है।   

इसे भी पढ़ें: Supreme Court में पहली बार उठाया गया ये ऐतिहासिक कदम, SC/ST कर्मचारियों को मिलेगा 22.5% कोटा

संभव है कि संसद में इस समिति की सिफारिश मानते हुए आय सीमा बढ़ा दी जाए। इस पर शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐतराज करे। राजनीतिक दलों में इतना साहस ही नहीं है कि आरक्षण की सीमा तय करने और उसके प्रभावों पर किसी तरह की चर्चा करें। इसके विपरीत आरक्षण का दायरा बढ़ाने के लिए राजनीतिक दलों में प्रतिस्पर्धा रहती है। यही वजह है कि जब-जब आरक्षण में क्रीमी की पहचान कर अलग करने की बात की जाती है, तब राजनीतिक दलों को काठ मार जाता है। क्रीमी लेयर के मुद्दे पर चर्चा से सभी राजनीतिक दल भयभीत रहते हैं कि कहीं उनका वोट खिसक नहीं जाए। आरक्षित वर्ग के हित में होने के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करना तो दूर, बल्कि इस पर सार्वजनिक तौर पर बहस तक करने को तैयार नहीं है। जबकि यदि क्रीमी लेयर की पहचान कर उसे आरक्षण से बाहर कर दिया जाए तो आरक्षण से वंचित उसी वर्ग के लोगों को इसका फायदा मिल सकेगा।   
संसदीय समिति की जो रिपोर्ट संसद में रखी गई है, उसमें अन्य पिछड़ा वर्ग की आय सीमा बढ़ाने की सिफारिश तो गई है किन्तु क्रीमी लेयर का जिक्र तक नहीं किया गया है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पुनर्विचार निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2024 में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें राज्यों को आरक्षण के संबंध में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) जैसे आरक्षित श्रेणी समूहों को उप-वर्गीकृत करने का अधिकार दिया गया। साथ ही कोर्ट ने कहा कि एसटी-एसटी क्रीमीलेयर को लेकर रिजर्वेशन में कैटेगरी बनाई जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय में कहा गया कि क्रीमी लेयर सिद्धांत, जो पहले केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) पर लागू होता था (जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में उजागर किया गया था) अब एससी और एसटी पर भी लागू होना चाहिए। इसका मतलब है कि राज्यों को एससी और एसटी के भीतर क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए। उसे आरक्षण के लाभ से बाहर करना चाहिए। अदालत ने कहा कि आरक्षण केवल पहली पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिए। यदि परिवार में किसी पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ ले लिया है और उच्च दर्जा प्राप्त कर लिया है, तो आरक्षण का लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी को उपलब्ध नहीं होगा। इस निर्णय में विभिन्न राज्यों के कानूनों को बरकरार रखा गया, जिन्हें पहले रद्द कर दिया गया था, जैसे कि पंजाब और तमिलनाडु के कानून, जो राज्यों को एससी और एसटी समूहों के भीतर उप-श्रेणियां बनाने की अनुमति देते हैं। अर्थात राज्य मौजूदा आरक्षण के दायरे में ही अति पिछड़ों की पहचान कर उसे अलग से आरक्षण दे सकते हैं। इस पर भी ज्यादातर राज्य खामोश हैं। उन्हें लगता है इससे जिस वर्ग का आरक्षण कम हुआ है, वह नाराज नहीं हो जाएगा और वोट नहीं देगा। ऐसा करने से कहीं उस वर्ग का वोट बैंक हाथ से नहीं खिसक जाए, यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को एक साल होने के बाद भी ज्यादातर राज्यों ने आरक्षित दायरे में अति पिछड़ों की पहचान कर उन्हें अलग से आरक्षण देने की कवायद तक नहीं की।   
क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर देश के किसी भी राजनीतिक दल और सरकारों ने चर्चा तक नहीं की। जबकि कोर्ट का साफ कहना था कि क्रीमी लेयर को हटाने से उसी वर्ग के वंचित लोगों को आरक्षण का फायदा मिल सकेगा। राजनीतिक दलों ने पहले कभी ओबीसी के क्रीमी लेयर का जिक्र तक नहीं किया, सुप्रीम कोर्ट ने इसमें एससी-एसटी को भी शामिल कर लिया। यह मुद्दा नेताओं के लिए अत्यधिक ज्वलनशील हो गया। क्रीमी लेयर को हटाना तो दूर रहा कोई इसके दायरे पर बहस तक करने को तैयार नहीं है। इसके विपरीत राजनीतिक दल आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को हटाने पर तत्पर हैं।   
नेताओं को लगता है कि आरक्षण की सीमा में नए वर्गों को शामिल करने से उनका वोट बैंक मजबूत होगा। यह अलग बात है कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को हटाने के उनके मंसूबों को सुप्रीम कोर्ट ने सफल नहीं होने दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 30 अप्रैल को यह घोषणा की थी कि आगामी जनगणना के साथ-साथ जाति गणना भी की जाएगी। इसके तुरंत बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भारत में कोटा पर 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने की अपनी मांग दोहराई। राहुल गांधी ने कहा, “रिजर्वेशन पर 50 प्रतिशत की सीमा हमारे देश की प्रगति और पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों की प्रगति में बाधा बन रही है और हम चाहते हैं कि इस बाधा को समाप्त किया जाए।   
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी 50 प्रतिशत कोटा सीमा का हवाला देते हुए आरक्षण के प्रयासों को खारिज कर चुका है। आरक्षण का दायरा बढ़ाने की पैरवी करने वाले राहुल गांधी ने एक बार भी क्रीमी लेयर को हटाने की बात नहीं कही। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को लगता है कि आरक्षण का दायरा बढ़ा कर वोट बैंक बढ़ाना ज्यादा आसान है। इसके विपरीत देश में विकास, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर चुनाव जीतना आसान नहीं हैं। यही वजह है राजनीतिक दल आरक्षण का कई पीढिय़ों से लगातार फायदा ले चुके वर्ग को भी आरक्षण के दायरे से बाहर करने से कतराते रहे हैं। बेशक इससे दूसरे आरक्षित वर्ग का हिस्सा हड़पा जाता रहे।
– योगेन्द्र योगी