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वोट बैंक लालच ने बर्बाद किया हिमाचल-उत्तराखंड को


लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए दूरदृष्टि के साथ दूरगामी विकास को सिरे चढ़ाया जाए। इसके विपरीत नेताओं को सिर्फ वोट बैंक की चिंता है। इसके लिए तात्कालिक विकास की नीतियों के फायदे के लिए लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने के साथ ही पर्यावरण के विनाशकारी प्रभावों की अनदेखी करना आम है। यही वजह है कि हिमाचल सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने तगड़ी लताड़ लगाई है। कोर्ट ने कहा कि अगर अनियंत्रित विकास और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियां नहीं रोकी गईं, तो एक दिन पूरा हिमाचल नक्शे से गायब हो सकता है। यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब हिमाचल में बदलते पर्यावरण को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं और विकास के नाम पर अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं।   
सुप्रीम कोर्ट की इस कड़ी टिप्पणी के अगले ही दिन उत्तराखंड के चमोली में चमोली जिले में हेलंग के समीप निर्माणाधीन एक हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट साइट के पास पहाड़ एक बार फिर से ढहकर धड़ाम से नीचे गिर गया। इस हादसे में कंपनी के 8 मजदूर घायल हो गए। साइट पर हादसे के वक्त करीब 300 मजदूर थे। जहां पर लैंडस्लाइड हुआ वहां पर 70 के करीब मजदूर कार्य कर रहे थे। ऐसे हादसों के बावजूद हिमालयी क्षेत्र के राज्यों की सरकारों ने कोई सबक नहीं सीखा है। इन राज्यों में विकास के नाम पर बर्बादी की कहानी लिखी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा कि कहा कि सरकारों का मकसद राजस्व बढ़ाना नहीं बल्कि पर्यावरण को बचाना होना चाहिए खासकर ऐसे संवेदनशील इलाकों में। कोर्ट ने यह टिप्पणी एक होटल कंपनी की याचिका खारिज करते हुए की। यह कंपनी जून 2025 की उस अधिसूचना के खिलाफ थी, जिसमें हिमाचल के श्री तारा माता हिल को ग्रीन एरिया घोषित कर नई प्राइवेट कंस्ट्रक्शन पर रोक लगा दी गई थी। बेंच ने कहा कि हिमाचल प्रदेश में हालात बिगड़ते जा रहे हैं। इस साल भी बाढ़ और भूस्खलन में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घर तबाह हो गए। यह साफ है कि प्रकृति इंसानी गतिविधियों से नाराज है। कोर्ट ने आगे कहा कि केवल प्रकृति को दोष देना गलत है। हिमाचल में पहाड़ों का खिसकना, सड़कों पर लैंडस्लाइड, मकानों का गिरना और सड़क धंसना, ये सब इंसानों की छेड़छाड़ का नतीजा है। 

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कोर्ट ने भाखड़ा और नाथपा झाकड़ी जैसे हाइड्रो प्रोजेक्ट्स पर सवाल उठाते हुए कहा कि बिना सही भूगर्भ जांच और पर्यावरण अध्ययन के ये प्रोजेक्ट्स पहाड़ों को कमजोर कर रहे हैं। न्यूनतम जल प्रवाह का पालन न होने से नदियों में जलीय जीवन खत्म हो रहा है। आज सतलुज नदी एक नाले जैसी हो गई है। कोर्ट ने साफ किया कि अब समय रहते सख्त कदम न उठाए गए तो हिमाचल का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। गौरतलब है कि पिछले एक सदी में हिमाचल प्रदेश में औसत तापमान 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यह जलवायु परिवर्तन का एक स्पष्ट संकेत है, जिसके कारण हिमाचल प्रदेश में आपदाओं की संख्या में  तापमान में वृद्धि के कारण, बारिश की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि हुई है, जिससे बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाएँ आ रही हैं। हिमाचल के पांच जिले (चंबा, हमीरपुर, कांगड़ा, कुल्लू, मंडी) भूकंप के लिए अति संवेदनशील क्षेत्र में आते हैं। भूकंप और लगातार बारिश से पहाड़ कमजोर हो जाते हैं, जिससे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती हैं। हिमाचल में लगभग 58.36 प्रतिशत भूमि तीव्र मिट्टी कटाव के खतरे में है। भारी बारिश के कारण मिट्टी बह जाती है, जिससे पहाड़ों की स्थिरता कम होती है और भूस्खलन का खतरा बढ़ता है। हिमाचल में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इससे नदियों में पानी का स्तर बढ़ जाता है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ता है। हिमाचल में अनियोजित-अवैज्ञानिक विकास कार्यों ने आपदाओं को और बढ़ावा दिया है।   
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार और डेवलपर्स पर्यावरणीय प्रभावों को नजरअंदाज कर रहे हैं। हिमाचल में 174 छोटे-बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स हैं, जो 11,209 मेगावाट बिजली पैदा करते हैं। इन प्रोजेक्ट्स के लिए पहाड़ों को काटा जाता है। नदियों का प्रवाह बाधित होता है। वर्ष 2023 में कुल्लू और सैंज वैली में मलाना, सैंज और पार्वती प्रोजेक्ट्स के पास भारी नुकसान हुआ। मंडी, कुल्लू और शिमला में सड़क निर्माण के कारण बारिश में स्लिप और भूस्खलन की घटनाएं आम हैं। शिमला जैसे शहरों में बहुमंजिला इमारतें बन रही हैं, जो पर्यावरणीय चेतावनियों को नजरअंदाज करती हैं। हिमाचल में जंगलों को काटकर बिजली प्रोजेक्ट्स, सड़कों और पर्यटन के लिए जगह बनाई जा रही है।   
वर्ष 1980 से 2014 तक किन्नौर में 90 प्रतिशत जंगल गैर-वन गतिविधियों के लिए हस्तांतरित किए गए, जिससे जैव विविधता और मिट्टी की स्थिरता को नुकसान हुआ। हिमाचल में हर साल लाखों पर्यटक आते हैं, खासकर कुल्लू, मनाली और शिमला जैसे क्षेत्रों में। इससे पर्यावरण पर दबाव बढ़ता है। होटल, रिसॉट्र्स और अन्य निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों को काटा जाता है। कचरे का उचित प्रबंधन नहीं होता। इससे जल स्रोत और नदियां प्रदूषित होती हैं। बाढ़ जैसी स्थिति बनती है। पिछले कुछ सालों में हिमाचल में आपदाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ी है। वर्ष 2021 में 476 लोगों की मृत्यु और करीब 1151 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। वर्ष 2022 में 276 लोगों की मृत्यु और 939 करोड़ रुपये का नुकसान, वर्ष 2023 में 404 लोगों की मृत्यु तथा 12000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इसी तरह पिछले वर्ष 2024 में 358 लोगों की मृत्यु, 1004 घर क्षतिग्रस्त, और 7088 पशु हानि और 18 बादल फटने की घटनाओं ने 14 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को नुकसान पहुंचाया। कमोबेश ऐसे ही विनाशकारी हालात उत्तराखंड के हैं। इस साल भी बारिश के कारण उत्तराखंड में एक जून से लेकर अभी तक प्राकृतिक आपदाओं में 25 लोगों की मौत हुई है। उत्तराखंड में नदियां अक्सर भारी बारिश के कारण उफान पर आ जाती हैं, जिससे बाढ़ और भूस्खलन होता है। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा में मंदाकिनी नदी में आई बाढ़ ने व्यापक विनाश किया था। वर्ष 2021 में उत्तराखंड में 17 प्रमुख बादल फटने की घटनाएं हुईं। जिससे 34 लोगों की मौत हो गई और 106 घर दब गए। आश्चर्य यह है कि इन दोनों राज्यों की सरकारों ने इन प्राकृतिक आपदाओं से कोई सबक नहीं सीखा। दोनों राज्यों में विकास के नाम अदूरदर्शी प्रतिकूल पर्यावरणीय गतिविधियां जारी हैं। इससे जाहिर है कि नेताओं की नजरें सिर्फ वोट बैंक तक सीमित रहती हैं, लोगों की जान-माल की यदि परवाह होती तो दोनों राज्यों के हालात इतने बदतर नहीं होते। 
– योगेन्द्र योगी